हमराही

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Monday, June 17, 2013

'पिता' पर स्वरचित रचनाएँ : भाग 3.


बचपन के इक बाबूजी थे 
सीधे सरल अनुशासन प्रिय थे मेरे बाबूजी ।
मुझे वैज्ञानिक बनाया, पोस्टमास्टर थे मेरे बाबूजी ।।
समय प्रबंधन का पाठ पढ़ा गए मुझे मेरे बाबूजी ।
गलती पर समझाते, डांटते, मारते थे मुझे मेरे बाबूजी ।।
स्वाभिमानी धार्मिक ज्ञान के सागर थे मेरे बाबूजी ।
मेरी शिक्षा के प्रति चिंतित समर्पित थे मेरे बाबूजी ।।
रामनवमी पर जन्मे मर्यादा पुरुष थे मेरे बाबूजी ।
स्नेह प्यार ममता भरे दिल के राजा थे मेरे बाबूजी ।।
घर समाज सबसे मान सम्मान आदर पाते थे मेरे बाबूजी ।
मेरे जीवन की पाठशाला के प्रथम गुरु थे मेरे बाबूजी ।।
पापा बनने पर मुझे लगा कितने अछे थे मेरे बाबूजी ।
जीवन यात्रा में पल पल याद आते मुझे मेरे बाबूजी ।।
छलकती आँखों से मैंने मुखग्नि दी जब चले गए मेरे बाबूजी ।            
शिक्षा संस्कार चरित्र की संपत्ति दे गए मुझे मेरे बाबूजी ।।
हर घर में पापा डैडी हैं पर नहीं हैं जैसे थे मेरे बाबूजी ।
प्रार्थना है अगले जन्म में पुनः मिलें मुझे मेरे बाबूजी ।। 
दिलीप भाटिया

बाबा 
मौन अडिग स्थिर रहकर
अपना फ़र्ज़ निभाता है
हाँ, तभी तो खड़ा हिमालय
बाबा की याद दिलाता है
गंभीर होकर भी चंचल
निच्छल जब वो बहता
है हाँ नदी ये ब्रह्मपुत्र
बाबा की याद दिलाता है
कड़ी ज़ुबान ताशीर मीठी
शीतल छाया देता है
हाँ नीम का पेड़ मुझे
बाबा की याद दिलाता है 
सुलोचना वर्मा



पिता की भूमिका माँ सम तुल्य
न समझे हर कोई इसका मूल्य
बालक जब रोता थपक कर सुला देती माँ
दूर से ही दिल में दुआ कर रह जाता पिता
उंगली पकड़ कर चलाये न चलाए
गोदी में बिठाकर बेशक लोरी न सुनाये
दर्द में बच्चे के शायद कभी आंसू न बहाए
पर हृदय पिता का हरदम ही बच्चो का भला चाहे
दिन रात मेहनत कर पसीना बहाए
पर थकन की शिकन माथे पर न दर्शाये
दिल नरम होता है उसका भी ,पर
ज़माने में पिता हरदम कठोर ही कहलाये
नमन करती हूँ इश्वर के इस स्वरुप को
माँ तो माँ है पर पिता बिन
जीवन भी जीवन नहीं कहलाये 
पूनम- -माटिया

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